एक बार अपने एक समाज बंधु के माताजी के देहावसान के बाद, तीये की बैठक में जाने का मौका था। वहाँ बैठक के बाद उठावणे की रस्म अदा करने का समय आया तो एक पंडितजी करीब आधा घंटे शांति पाठ इस तरह बोल रहे थे. मानो जैसे उनके आँखों के सामने पड़े लेपटोप को पढ़कर बोल रहे हो। समाज के संस्थाओं से प्राप्त शोक संदेश भी बिना चश्मा लगाये आसानी से पढ़ लिये थे। शोक सभा विसर्जित हो गई, तो उत्सुकतावश में पंडितजी से परिचय करने उनके पास पहुँच गया और उनके उत्तम स्वास्थ्य के बारे में चर्चा की।
पंडितजी ने बताया “वे 79 वर्ष पार कर गये हैं और पढ़ने के लिये आँखों का ऑपरेशन नहीं करवाना पड़ा तथा बिना चश्में के किताबें आसानी से पढ लेता हूँ। सभी 32 दांत सही सलामत है। प्रातः 5 बजे उठकर शौचादि से निवृति के बाद 7-8 किलोमीटर दूर घूमने जाता हूँ वहाँ पहाड़ी की तलहटी में बैठकर ध्यान-योगा वगैरह प्रकृति की गोद में सम्पूर्ण करता हूँ। अपने कपड़े स्वयं धोता हूँ। छोटी-मोटी बीमारी होने पर मैं स्वयं अपनी प्राकृतिक चिकित्सा तथा देशी घरेलू उपचार करता हूँ। अपने बच्चों के इलाज भी मैं स्वयं करता हूँ। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि मैंने अपने मकान की आगे की दीवार पर बोर्ड लगा रखा है, जिस पर लिखा हुआ है इस घर में डाक्टर की जरूरत नहीं।”
इसी तरह दूसरा मामला बताता हूँ। मेरे एक साथी डिजायन इंजीनियर है। उन्होंने एक बार विचार किया कि जंगलों में पहले अपने ऋषि मुनि बिना पकाया खाना खाते थे तो अपन भी ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? परीक्षण के तौर पर उनके घर खाना नहीं बनाया गया और प्राकृतिक खाद्य वस्तुएँ जैसे फल, सब्जी कंदमूल रात-दिन खाते रहे और अपने परिवार के सदस्य तथा स्वयं अपना काम ऑफिस जाना आना करीब छः महीने तक चालू रखा और उनके स्वास्थ्य में कोई गिरावट महसूस नहीं की। उनका कहना है कि हम सदैव प्रकृति से जुड़े रहे तथा प्राकृतिक चिकित्सा करते रहे, तो अपना शरीर भी ऋषि मुनियों की तरह चल सकता है।
अब प्रकृति से जुड़ाव की बात हुई, तो मैं आपको मेरे बचपन का किस्सा बताता हूँ, हम उस समय किस तरह प्रकृति से जुड़े हुए थे। एक बार में 7-8 साल की अवस्था में नंगे पाँव एक खेत से गुजर रहा था. तो एक बड़ा लम्बा काँटा मेरे पैर में नीचे से घुस कर ऊँपर बाहर निकल गया। मैं रोता-रोता चमार के घर गया और उसने अपने नुकीले औजार से थोड़ी पैर की चमड़ी कुचली और फिर पक्कड़ से पकड़कर पूरा काँटा पैर से बाहर खींच लिया। थोड़ा खून बहने लगा तो चमार ने बारीक साफ मिट्टी उस घाव पर लगा दी और मुझे कहा थोड़ी देर बैठकर दबा कर रखो। खून बंद हो गया। फिर एक लड़के ने मेरे पैर पर मूत्र किया ताकि मिट्टी साफ हो सके और फिर उसने नीम के छाल की पत्थर पर घीसकर मलहम बनाकर -उस जगह तीन-चार दिन लगाया और घाव ठीक हो गया। उस जमाने में गाँवों में न तो एंटीसेप्टिक तथा न टिटनेस इन्जेक्शन होता था। कहने का तात्पर्य यही है, कि जितने हम प्रकृति से जुड़े रहेंगे, सादा जीवन उच्च विचार आपसी भाईचारा रखेंगे. उतनी जिंदगी आनन्दमय तथा स्वस्थ रहेगी।
-Er. Tarachand
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