एक दार्शनिक वरिष्ठ अभियन्ता ने दस वर्ष पूर्व मुझे बताया कि मैं और तुम दो लकड़ी के लठ्ठे की तरह दुनिया रूपी अथाह समुद्र में विचरण कर रहे है, जैसे वे लट्ठे समुद्र में लहरों के बीच हिचकोले खाते हुए मिलते है और मिलकर बिछुड़ने के बाद वापिस कब मिलेंगे, किसी को पता नहीं।
इस सन्दर्भ में आपको मैं अपनी जिन्दगी में घटित एक घटना को प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं सन् 1970 में विद्युत मंडल जयपुर में कार्यरत था। एक दिन मैं अपने कनिष्ठ अभियन्ता के साथ सपरिवार जीप से फुलेरा पंचायत समिति के विद्युतीकरण की योजना बनाने के लिये गये पहले फुलेरा, सांभर क्षेत्र देखते हुए जोबनेर पहुँचे, तो करीब शाम हो गई थी। मेरे साथ कनिष्ठ अभियन्ता ने अपने रिश्तेदार माथुर साहब, जो कि उस समय जोबनेर कृषि महाविद्यालय में प्राध्यापक थे, मिलने की इच्छा जाहिर की और हम सब उनके निवास पर पहुँचे। चाय नाश्ते के बाद रवाना हुए तो जीप के दोनों टायर पंचर हो गये। फिर दुबारा माथुर साहब के घर दूसरे वाहन से पहुँचे और खाना खाने के बाद रात्रि को उनके निवास पर विश्राम किया। समय के साथ यह घटना विस्मृत हो गई।
अभी पाँच दिन पूर्व ही जोधपुर में मेरे निवास स्थान के पास की कॉलोनी में जोशीजी जो कि बीकानेर कृषि विश्व विद्यालय में डायरेक्टर पद पर थे, के देहावसान के बाद तीसरे का उठावणा यानि शोक सभा थी। मैं भी उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करने गया। वहाँ पर जब मैं बैठा तो मेरे पास में बैठे व्यक्ति से मैनें पूछा, आप जोशी जी को कैसे जानते हैं ? उन्होंने बताया मैं व जोशीजी बीकानेर कृषि विश्व विद्यालय में साथ-साथ अध्यापन कार्य करते थे। तब मैनें उनकी तरफ गौर से देखा तो महसूस हुआ कि यह सज्जन पहले कभी मिले हुए है ? मैनें झिझकते हुए उनसे दुबारा पूछा- आप सन् 1970 में जोबनेर कॉलेज में पढ़ाने वाले माथुर साहब ही है क्या ? उन्होंने कहा- हाँ और मेरे तत्कालिन कनिष्ठ अभियन्ता का नाम लेने से वस्तुस्थिति स्पष्ट हो गई कि वे वही माथुर साहब है जिनसे सन् 1970 से बाद 2015 में यानि 45 वर्ष बाद मिलने का दुबारा मौका मिला। है ने अचरज की बात ? इसलिये सही कहा- न जाने इस संसार सागर में कौन, कब, कहाँ मिल जाये ?
-Er. Tarachand
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