जोधपुर में जब महात्मा गांधी अस्पताल की शुरूआत हुई, उस समय डॉ. ई. डब्ल्यू हैवर्ड प्रिंसीपल मेडिकल ऑफिसर थे। डॉ हैवर्ड अस्पताल की व्यवस्था को लेकर हर समय जागरूक रहते थे। अगर ये कहीं बाहर गये होते और शाम को घर लौटते, उस समय भी अस्पताल का निरीक्षण करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था। ऐसे समय निरीक्षण के समय पूर्व में डॉक्टरों या नर्सिंग स्टाफ को सूचित न कर आकस्मिक दौरा करते। अस्पताल में मरीजों के हाल-चाल पूछते और अस्पताल की व्यवस्था के बारे में जानकारी लेते। मरीज के पास एक तरफ छिपकर खड़े होकर मरीज से नर्स को बुलवाते या डॉक्टर को तकलीफ बताने के लिए प्रोत्साहित करते और फिर देखते कि डॉक्टर या नर्स किस तरह मरीज से पेश आते है और उसकी देखभाल व ईलाज करते है। अस्पताल में पूरा सेना की तरह अनुशासन था उस समय एक बार डॉ. हैवर्ड अस्पताल में बिना शेव किये आ गये, सब कम्पाउण्डर ने बताया कि आज आपने अस्पताल का अनुशासन तोड़ा है। डॉ. हैवर्ड उसके रिमार्क से विचलित नहीं हुए और उसी समय एक कागज पर आदेश लिखा कि डॉ. हैवर्ड पर आज 10 रूपये का जुर्माना लगाया जाता है और वह जुर्माना उसकी तनख्वाह से काटा जावे और वह आदेश उस कम्पाउण्डर को थमा दिया कि कल मेरे कार्यालय में पहुंचा देना।
पचास वर्ष पूर्व जब मैंने एम.बी.एम. इंजिनीयरिंग कॉलेज जोधपुर में दाखिला लिया था. उस समय श्री वी.जी. गर्डे प्रिंसीपल थे। ये समय के बहुत पाबन्द थे। सुबह ठीक 7:40 बजे कॉलेज पहुंच जाते और श्री दुलीचन्द जी जांगिड इंस्ट्रक्टर उनकी घड़ी से अपने पास की अलार्म घड़ी में टाइम मिलाते और कॉलेज के सभी सकाओं में टंगी घड़ियों का टाइम सही करते। वे कभी विद्यार्थियों से उलझते नहीं थे। जब भी कहीं क्लास में गड़बड़ दिखती तो विभागाध्यक्ष को ही कहते।
उनका लड़का ए. वि. गर्दे उसी कॉलेज में पढ़ता था। प्रिंसीपल साहब का निवास कॉलेज से करीब 2.5-3 किलोमीटर दूर था। सुबह प्रिंसीपल साहब कार से अकेले घर से कॉलेज आते फिर दोपहर को भोजन के लिए कॉलेज से निवास पर आते और पुनः कार से कॉलेज आते।
शाम को 5 बजे बाद प्रिंसीपल साहब कार से घर लौटते। ठीक उसी तरह गर्डे साहब का लड़का घर से सुबह साईकिल से कॉलेज आता। दोपहर को भोजन के लिए कॉलेज से साईकिल पर घर जाता और उसी तरह शाम को 5 बजे के बाद उनका लड़का साईकिल से घर जाता। उसे हमने कभी कॉलेज में उसके पिताजी के दफ्तर में जाते नहीं देखा और न कभी प्रिंसीपल साहब की कार में बैठा देखा। एक दिन उनका लड़का शाम को साईकिल से घर लौट रहा था और पीछे प्रिंसीपल साहब की कार उधर से निकली तो ड्राईवर ने कार रोकी। प्रिंसीपल साहब ने पूछा तो ड्राईवर ने बताया कि अविनाश बाबू की साईकिल की चैन टूट गई है। प्रिंसीपल साहब ने कहा- तुम गाड़ी चलाओं, वह साईकिल लेकर अपने आप आ जायेगा।
उपरोक्त दोनों प्रंसग हमें यह सोचने पर मजबूर कर देते है कि क्या ऐसा ही अनुशासन फिर अस्पताल, इंजिनीयरिंग कॉलेज एवं अन्य सार्वजनिक सेवा संस्थानों में पुनः लाया जा सकता है ?
-Er. Tarachand
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