हरियाणा का एक अग्रवाल परिवार (नव दम्पति) व्यापार करने के लिए काफी वर्षों पहले कलकत्ता गये थे। उन्होंने वहा अपना व्यवसाय शुरू किया। साथ में एक रिश्तेदार को भी भागीदार बना दिया, जिसने शुरू में धधे में पचास फीसदी भागीदारी वहन करने का आश्वासन दिया था तथा उसे लगाये गये धंधे में तजुर्बा था। शुरू में नव दम्पति परिवार ने व्यापार में पूरा पैसा जो अपने पास हरियाणा से लाये ये लगा दिया लेकिन दूसरा भागीदार समय-समय पर अपने हिस्से का भुगतान करने का झांसा देता रहा और धंधे में उधारी माल देने में कोई संकोच नहीं करता। नतीजा व्यापार में घाटा दिन पे दिन बढ़ने लगा।
इस तरह व्यापार में घाटा बढ़ने से जिन्हें माल उधार में बेचा था. उन्होंने भुगतान रोक दिया तथा जिन व्यापारियों से माल उधार में खरीदा था, उन्होंने बकाया रकम की वसूली के लिए दबाव बनाना शुरू किया। एक दिन उनका भागीदार (रिश्तेदार उनको मझधार में इस तरह छोड़कर हरियाणा अपने गांव भाग गया और सेठजी अकले भयंकर परेशानी में पड़ गये। आखिर उन्होंने फैसला किया कि इस हालत में कलकत्ता में रह नहीं सकते तथा आत्म हत्या करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया कि मेरे ऊपर व्यापार की काफी देनदारियां बढ़ गई है, जिन्हें माल बेचा था ये भी भुगतान करने में आनाकानी कर रहे है। अतः मैं इन परिस्थितियों में जिन्दा नहीं रह सकता, अंत में जहर खाकर मरना चाहता हूँ। तू आराम से वापिस हरियाणा चली जा सेठाणी ने कहा कि मैंने शादी के समय आपका हर परिस्थिति में साथ निभाने का वादा किया था अतः मैं भी आपके साथ चलकर आत्म हत्या कर लूंगी। सेठजी ने बहुत समझाया लेकिन सेठाणी टस से मस नहीं हुई और आखिरकार दोनों ने जंगल में जाकर ज़हर खाकर यह लीला समाप्त करने का संकल्प लिया। दोनों मरने के लिए जंगल की ओर प्रस्थान कर गये। रास्ते में सेठाणी ने कहा कि आज अपना मरना निश्चित है। मेरे दिमाग में एक नई योजना आई है. आप कहे तो बताऊ सेठजी ने हा भर दी। सेठाणी बोली कि अगर मरने के बाद अपना पुनर्जन्म किसी मजदूर परिवार में हो गया तो क्या करेंगे। सेठजी बोले- यह तो अपने बस में नहीं है। पत्नी ने कहा कि मानो अपन जहर खाकर भर गये और बिहार में एक गरीब मजदूर के घर अपना जन्म हो गया। इसी धारणा को लेकर कलकत्ता छोड़कर बिहार चलते है और वहां मजदूरी कर अपना पेट पाल लेंगे l सेठजी को बात जच गई और उसके बाद आत्महत्या करने का विचार त्यागकर बिहार प्रस्थान कर गये।
बिहार के एक कस्बे में जाकर एक ठेकेदार के यहां तगारी फावड़ा लेकर पति-पत्नी दानों ने मजदूरी शुरू की। धीरे-धीरे ठेकेदार का विश्वास पात्र बन गया। आदमी पढ़ा लिखा जान व ईमानदारी देख उसे ठेकेदारी के धंधे में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी दे दी। समय गुजरता गया और फिर वापिस उसी ठेकेदार ने उसको अलग ठेका दिलाकर मालामाल कर दिया और कालान्तर वह पुनः इस स्थिति में आ गया कि उसने धीरे-धीरे कलकत्ता की पुरानी देनदारियां चुका दी और बच्चों को धंधा सौंपकर वह स्वयं के लाभ का हिस्सा ब्रदीनाथ धाम में लगाकर धर्मशाला स्थापित कर ली तथा अपना युद्धापा वहीं गुजारने लगे। उनकी पत्नी का होसला तारीफ के काबिल साबित हुआ।
-Er. Tarachand
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