एकसाता परिवार था। परिवार बहुत प्रेम से रहता था कि पिताजी का निधन हो गया। पीछे बच गई माँ और उसका बेटा पिता की यह दिल से कि उसका बेटा डाक्टर बने पिता के देवसान के बाद माँ पर बच्चे का सारा दाल गया था। उसे रह रहकर अपने पति की ख्वाहिश याद आती। उसने ठान लिया कि मैं पति की इच्छा पूरी करने के लिए बच्चे को डाक्टर बनाऊंगी। बेटे का भविष्य बनाने के लिए यह लोगों के घर काम करने जाती जो आमदनी होती उससे बच्चे को पढ़ाती-लिखी जो थोड़ा बहुत गहना था, उसे बचा और मकान भी बेच डाला। एक झोपड़ी में आकर रहने लग गई और जैसे जैसे आखिर उसने अपने बेटे को अक्टर बना दिया।
समय बीता, बेटे की शादी भी डाक्टर बहु से हुई फिर शुरू हुआ पुरानी और नई पीढ़ी का असंतुलन का सिलसिला साल को बहु का रहन-सहन रास न आया तो कभी भी जी कह दिया करती थी बेटा सिर दक लो बहु को यह टोका-टोकी पसन्द न | आई और एक दिन पति से कह दिया कि अब मैं किसी भी हालत में इस घर में नहीं रहूंगी। बेटे ने पत्नी को समझाते हुए कहा कि कुछ तो सोचो मेरी माँ ने मुझे डाक्टर बनाने में कितनी कुर्बानियां दी है, कितनी कठनाईयों से मुझे पाला-पोसा है, पर बहु नही मानी | और पत्नी के दबाव के आगे झुकते हुए माताजी को वृद्धा आश्रम पहुंचाया गया। बेटे ने माँ से कहा- यहां तुम्हारा मन लग जायेगा और मैं तुम्हे पांच सौ रूपये हर महिने भेजता रहूंगा।
माँ ने कहा- ठीक है बेटा, जिसमें तुम लोगों को सुख मिले पैसा ही करो। बुढ़िया वृद्धाश्रम में रहने लगी। हर महिने पाच सौ रूपये आते रहे। बेटा छः महिने में एक बार मिलने आ जाता तो कमी कभार बहुरानी लोभ लालचवश वहां चली जाती। इस तरह कोई ढाई वर्ष बीत गये।
एक दिन वृद्धाश्रम के संचालक का बेटे के पास फोन आया डाक्टर साहब, आपकी मी नाजुक हालत में है, आप फौरन यहां पहुंच जाइये आपकी म जाने से पहले आपसे मिलना चाहती है। बेटे ने कहा- मेरे पास कुछ मरीज है. उन्हें निपटाकर आता हूँ। उसी माँ की बेटी अमेरिका में रहती थी. सूचना पाकर ही दूसरे दिन वृद्धाश्रम पहुंच गई थी। बेटा दूसरे दिन पहुंचा और अपनी दाहिन को खदे पाया तो चौका। उसने पूछा माँ कहां है ? सबके चहरे उतरे हुए बया कर रहे थे कि माँ नहीं रही। उसने संचालक से पूछा क्या आखिरी सांस लेने से पहले माँ ने मुझे याद किया था ? संचालक ने बताया कि मरने से पहले माँ की यही अंतिम इच्छा थी कि अपने बेटे का मुंह देख ले, लेकिन बार-बार फोन करने के बावजूद तुम नहीं आये, हां तुम्हारी माँ ने जाने से पहले तुम्हारे लिये ये दो लिफाफे दिये हैं। उसने देखा कि एक लिफाफा पतला था और दूसरा मोटाउने फिके लेकर पहले पतला वाला लिफाफा खोता.
जिसमे लिखा था मेरे प्यारे बेटे, आखिर तुम आ गये, मुझे विश्वास था कि तुम जरूर आओगे। मुझे वृद्धाश्रम में कोई तकलीफ नही हुई और एक पैसा भी खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी। तुम तो मेरे बहुत प्यारे बेटे हो। तुमने जो पांच सौ रूपये हर महिने भेजे, वे पन्द्रह हजार रूपये दूसरे लिफाफे में रखे है। मेटा जैसे में बूढ़ी हुई- एक दिन तुम भी पूरे हो जाओगे। हो सकता है तुम्हें भी एक दिन इसी वृद्धाश्रम में रहना पड़े। मुझे नहीं पता. उस समय तुम्हारा बेटा तुम्हे पाच सौ रूपये भेज पायेगा या नहीं। उस समय पैसों की जरूरत रहेगी। ये पन्द्रह हजार रुपये में तुम्हारे लिए | उस समय के लिए छोड़ कर जा रही हूं।
-Er. Tarachand
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