दिन सज्जनों की उम्र इस समय 75 से 85 वर्ष तक की है, सरकारी नौकरी कर चुके हैं और वे जिन्होंने ग्रामीण परिवेश से निकलकर शहरों की तरफ रुख किया है, उस पीढ़ी को मैं संघर्षशील पीढ़ी मानता हूँ, जिनका ब्यौरा निम्न प्रकार है
गाँवों में पिताजी पुश्तैनी धंधा करते थे और बहुत कम आमदनी के बावजूद इस पीढ़ी के बच्चों को प्राईमरी तथा हाई स्कूल की पढ़ाई से कराकर इस योग्य बनाया कि ये उच्च शिक्षा के लिए शहरों की तरफ रुख कर सकें। सबसे पहले शहरों में पढ़ाई के लिए रहना, खाना, पौना तथा कॉलेज का खर्चा वहन करने के लिए संघर्ष किया। कुछ छात्रों ने पिताजी की कमाई के खर्च पर तथा कुछ ने शिक्षा कर्ज लेकर कॉलेज की शिक्षा पूर्ण की।
उस जमाने में कॉलेज भी सीमित थी और कॉलेज शिक्षा प्राप्त करने के विद्यार्थी भी कम मात्रा में होते थे। अतः योग्यता अनुसार इंजीनियरिंग, मेडिकल या प्रोफेशनल शिक्षा प्राप्त की, उसके पश्चात् सरकारी नौकरी मिल गई।
नौकरी शुरू करने के बाद घर बसाने की कवायद शुरू हुई। माता पिता ने अधिकतर मामलों में हमारा बाल विवाह किया था। अतः गौना कर धर्मपत्नी को भी शहर में साब से आए। उस जमाने में कनिष्ठ अभियन्ताको 200 रुपए प्रतिमाह तथा अध्यापक को करीब 100 रुपए मिलते थे। उस तनख्वाह से मकान किराया पर खर्च आदि से जिन्दगी शुरू हुई। फिर बात बच्चों की परवरिश का बोझ पड़ा। बच्चे थोड़े बड़े हुए उसी हिसाब से उनकी शिक्षा का इंतजाम किया गया। अपने स्वयं के खचों में कटौती कर बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाई ताकि वे भी कॉलेज
की शिक्षा प्राप्त कर अपने से बेहतर जिन्दगी जी सकें। अब उसके बाद बच्चों की उच्च शिक्षा के कारण अच्छी नौकरी लग गई और दूसरे शहरों में जाकर रहने लग गए। अच्छी नौकरी के कारण समाज के धनाढ्य वर्ग के लोगों के साथ शादी-विवाह के रिश्ते हो गए।
इस पीढ़ी के व्यक्ति समय बीतने के बाद सेवानिवृत्त हो गए और जिस शहर में उम्र निकाली उसी जगह पर हैसियत के लायक मकान बनाकर रहने लग गए। लेकिन लड़का उच्च वर्ग की लड़की के चक्कर में आकर माँ-बाप से दूरी बनाकर, सास-ससुर की तरफ ज्यादा ध्यान देता है। माँ-बाप यानि यह पीढ़ी यह सब देखकर अन्दर से दुःखी होती है, लेकिन लोगों के सामने बेटे के अच्छी तनख्वाह बता बताकर संतोष करते हैं। बहुत ही कम मामले मिलते हैं कि जिस संघर्ष से इस पीढ़ी ने मुकाबला किया, उनके बच्चे वापिस वैसी श्रेणी की सेवा करते हैं।
लेकिन मैं आपको एक जान-पहचान के पुरोहित परिवार का किस्सा बताता हूँ। उस लड़के के पिताजी गाँव के थे और गाँव में हाई स्कूल तक पढ़ाई की। लेकिन उसके बाद पिताजी का देहावसान हो गया। माँ ने देखा बेटा होनहार है, अतः वह उस बच्चे को लेकर जोधपुर आ गई और मकान किराए लेकर लड़के को मेडिकल शिक्षा (एम.बी.बी.एस.) दिलाई। बेटे को सरकारी नौकरी मिल गई। कुछ वर्षों बाद उसकी शादी माँ की इच्छानुसार गाँव की लड़की से हो गई। जो कि जोधपुर से ही गाँव से शहर आ गए थे। फिर डॉक्टर अमेरिका चला गया और वहाँ डॉक्टरी प्रेक्टिस चालू कर दी। अच्छे पैकेज की वजह से वह वहीं बस गया और जोधपुर की सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। कालान्तर में माँ को अमेरिका साथ ले गया। कुछ समय बाद माताजी का मन वहाँ नहीं लगा और उनके इच्छानुसार जोधपुर शिफ्ट कर दिया। जोधपुर में माँ के रहने के लिए मकान बनाया तथा उनके लिए, कार, ड्राईवर व नौकरानी की व्यवस्था जोधपुर में कर दी। जिसका पेमेन्ट डॉक्टर अमेरिका से करता रहता। माताजी की पूरी संभाल की और अमेरिका से बार-बार आकर माताजी के अंत समय तक इतनी सेवा की कि माताजी तहेदिल से आशीष देती रही। कितना सुन्दर उदाहरण पेश किया मेरे साथी डॉक्टर ने ।
-Er. Tarachand
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