साथी हो तो ऐसा

यह प्रसंग उस समय का है, जब जोधपुर शहर में मेडिकल कॉलेज स्थापित नहीं हुआ था। उस समय एक डॉक्टर परिहार (बदला हुआ नाम) लखनऊ से एम.बी.बी.एस. कर जोधपुर आए थे। उन्हें चिकित्सा विभाग ने जोधपुर शहर के महिला हॉस्पिटल में पदस्थापित कर दिया। इत्तफाक से उसी हॉस्पिटल में उनके पिताजी चपरासी के पद पर सेवारत थे जब डॉक्टर साहब हॉस्पिटल में ड्यूटी के समय कमरे में कुर्सी पर बैठते थे, तब उनके पिताजी बाहर स्टूल पर बैठकर अपनी राजकीय सेवा किया करते।

 

मोहल्ले वाले पूछते “बासा” आपको नौकरी अपने पुत्र के अधीन करते दिक्कत नहीं आती? बासा कहते अस्पताल में डॉक्टर मेरा अफसर है और मैं उनके अधीन कर्मचारी फिर दिक्कत कैसी? अतः डॉक्टर का आदेश मानना ही चपरासी की नौकरी है, जो मैं आराम से कर रहा हूँ। घर में मैं उसका बाप हूँ और डॉक्टर को बेटे की तरह हुक्म मानना पड़ता है और इसमें उसको कोई परेशानी नहीं। हालांकि यह क्रम थोड़े महीने ही चला और जब विभाग के ध्यान में आया तब उपरोक्त डॉक्टर का स्थानान्तरण दूसरे शहर में कर दिया।।

 

उसके बाद परिहार के पिताजी उस अस्पताल में अपनी सेवाऐं देते रहे। दो साल बाद पिताजी के पीठ में गाँठ हो गई और उसे दिखाने महात्मा गाँधी अस्पताल में शल्य चिकित्सक को दिखाने जाते और दवाईयाँ लेते रहे, लेकिन कोई खास आराम नहीं मिला। एक दिन वे कनिष्ठ विशेषज्ञ (सर्जन) को अपनी तकलीफ दिखाकर लौट रहे थे, तब डॉ. भंडारी जो कि उस समय वरिष्ठ शल्य चिकित्सक थे ने उन्हें जाते हुए देखा। डॉ. भंडारी ने दूसरे चपरासी को भेजकर उस व्यक्ति को वापस बुलाया। डॉ. भंडारी डॉ. परिहार के साथ लखनऊ में पढ़े थे और फिर मोहल्ले के पुराने साथी थे।

 

डॉ. भंडारी ने डॉ. परिहार के पिताजी को दोबारा चैक किया और बताया कि आपके गाँठ का इलाज ऑपरेशन के द्वारा ही होगा। पिताजी ने बताया कि जब मेरा बेटा जोधपुर छुट्टी पर आएगा, तब आपसे बात कर लेगा। डॉ. भंडारी ने बताया कि आपका बड़ा बेटा में स्वयं यहाँ उपस्थित हूँ आपको किसी तरह की दिक्कत नहीं रहेगी। डॉ. भंडारी ने उनका ऑपरेशन किया जो सफल रहा और डॉ. भंडारी ने उनकी रोज दवाई व पट्टी बंधन का काम नर्स को रोज ड्यूटी के बाद अस्पताल से आकर उनके घर भेजते और शाम को रोज खुद उनके घर

 

जाकर संभालते और इस तरह चपरासी होते हुए भी अपने साथी डॉक्टर के पिताजी को ठीक कर दिया। डॉ. परिहार से एक दिन उनके 80 वर्ष के पड़ाव पर मिलने का मौका मिला। मैं भी अपने इंजीनियरिंग कॉलेज पढ़ाई के समय से उनसे

 

परिचित था तथा उनके पड़ोस के मोहल्ले में रहता था। बातों-बातों में पुराने समय को याद करते हुए उन्होंने बताया कि किस तरह डॉ. भंडारी साथी ने पिताजी का मेरी अनुपस्थिति में ऑपरेशन कर दिया। यह तारीफे काबिल है। आगे बताया कि जब मैं पिताजी के ऑपरेशन होने के बाद जोधपुर छुट्टी पर आया तो पिताजी अस्पताल नौकरी पर गए हुए थे। तो सोचा कि इस समय डॉ. भंडारी को महात्मा गाँधी हॉस्पिटल में ही मिलकर आ जाता हूँ। दो-तीन घंटे तक गप्प-शप्प होती रही, मोहल्ले के पुराने साथी जो ठहरे। लेकिन उन्होंने मुँह से यह नहीं बताया कि मैंने तुम्हारे पिताजी के पीठ की गाँठ का ऑपरेशन तुम्हारी अनुपस्थिति में ही कर दिया तथा पूरी सार संभाल की।

 

उस जमाने में टेलीफोन व्यवस्था नहीं थी और पोस्टकार्ड द्वारा समाचार में पन्द्रह-बीस दिन बाद मिलते थे। उपरोक्त वाक्या के बारे में जब पिताजी ड्यूटी से घर आए और मुझे पूरा वृतान्त सुनाया तो मैं डॉ. भंडारी के कृत्य से अभिभूत हो गया, ऐसे साथी कहाँ मिलते हैं? यह कहकर उस दिन उनकी मुलाकात का समापन हुआ, दोनों डॉक्टर काफी वर्षों पहले देवलोक गमन कर चुके हैं, उन्हें बार-बार नमन ।

 

-Er. Tarachand

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The Ideal Friend

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