ऐसे ही होता है।

मैं मेरी उम्र के साथी लोगों के बारे में बताने जा रहा हूँ, जो कि उन्नीसवीं शताब्दी के कहलाते हैं और ग्रामीण परिवेश में पैदा व बड़े होकर अब शहरों में निवास करते हैं।

 

बचपन की बात करें तो गाँवों में जब जन्म हुआ तथा बड़े हुए खपरैल के कच्चे-पक्के मकानों के छत हुआ करते थे, रोशनी के लिए बिजली की जगह तेल की चिमनी या लालटेन हुआ करती थी। यातायात के लिए बैलगाड़ी हुआ करती थी। घर का सामान खरीदने के लिए भी तीन-चार किलोमीटर पैदल चलकर पास के बड़े गाँव की दुकान से सामान लाते थे। पिता पैतृक धंधा कर जीवन यापन करते थे, उस जमाने में शिक्षा बहुत ही कम लोग, यानि धनाढ्य वर्ग को ही मिल पाती थी। किस्मत से माता-पिता ने हमें पहली कक्षा में पास के दो किलोमीटर दूर दूसरे गाँव की स्कूल में पढ़ने भेजा, फिर बाद में हाई स्कूल से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहरों में भेजा। उनकी अपनी छोटी-सी मेहनत की कमाई से बचत कर हम लोगों को डॉक्टर, इंजीनियर या वकील आदि बनाया। उस पीढ़ी में शहरों में नौकरी शुरू की, लेकिन गाँव से सम्बंध बनाए रखा। समय-समय पर गाँव जाते लोगों से मेल-मिलाप होता। माता-पिता को भी कभी-कभी शहर ले आते। गाँव से आते तो गाँव का घी, सब्जियाँ माताजी उनके साथ में भेजती और हम गाँव जाते तो उनके लिए मिठाई, दवाईयाँ वगैरह ले जाकर उनका दिल प्रसन्न करते ।

 

अब भगवान की कृपा से हमारे भी शादी के बाद बच्चे हुए तो उनकी परवरिश शहरों में होने लगी, अपने भविष्य को संवारने के लिए शहरों में उच्च शिक्षा प्राप्त की और नौकरियाँ भी बड़े शहरों में करने लग गए, लेकिन उनका आना-जाना दादा-दादी के गाँव नगण्य रहा और वह पीढ़ी अपने आपको शुरू की बीसवीं शताब्दी का महसूस करती और गौरवान्वित होती।

 

अब उन बच्चों के बच्चे हुए और उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद अपने माता-पिता से भी एक दो पद सेवा नौकरी में ऊपर पहुँच गए और हम भी खुश और हमारे बच्चे भी खुश

 

उन्नीसवीं शताब्दी वाला पुरुष तथा उनकी पत्नी शहर में अकेले निवास करते हैं। दूसरी पीढ़ी के बच्चे मुम्बई, दिल्ली या कलकत्ता में नौकरी करते हैं और माता-पिता अपने बनाए घर वाले छोटे शहर में निवास करते हैं। जब तक स्वास्थ्य ठीक रहता है तब तक गाड़ी पटरी पर दौड़ती रहती है, लेकिन समय के साथ वृद्धावस्था दस्तक देती है। शरीर धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है। घर का सम्पर्क अब पुरी तरह छूट जाता है।

 

अब देखिए परेशानियाँ कैसे शुरू होती हैं जैसे:

 

  1. भाई साहब व भाभीजी एक छोटे शहर में रहते हैं और दूसरी पीढ़ी बड़े मेट्रोपोलीटन शहर में नौकरी या धंधा करते हैं। बेटा माता पिता को कहता है आप हमारे साथ चैन्नई आ जाओ। बेटा-बहु अपने नौकरी पर दिन भर ऑफिस में व्यस्त। ऐसे में फिर माँ-बाप परेशान होकर पुनः अपने पुराने शहर लौटते हैं। अब दोनों में से कोई वृद्धावस्था में बीमार हो जाता है तो खुद ही अपने आपको संभालो, बच्चे तो एक बार टेलीफोन कर हाल-चाल पूछ लेते हैं। ऐसा ही होता है।

 

  1. एक ही शहर में माँ-बाप पुराने अन्दर परकोटे के मकान में रहते हैं और बेटा बाहर घर से पाँच किलोमीटर दूर पॉश कॉलोनी में रहता है। पिता के देहावसान के बाद बेटा माँ को साथ रहने के लिए पॉश कॉलोनी में बुलाता है, लेकिन माँ का पुराने घर से मोह नहीं छूटता। एक दिन वह खाना बनाते किसी हादसे से बेहोश हो जाती है और प्राणान्त हो जाता है, लेकिन किसी को खबर नहीं।

 

  1. एक ही शहर में माँ-बाप पुराने मकान में रहते हैं एक ही बेटा माँ-बाप के साथ न रहकर अलग पॉश कॉलोनी में बंगले में अपने बीवी बच्चों के साथ रहता है। अब माँ पाँच साल से बीमार, अकेले पिता श्री अपनी पत्नी की सेवा कर रहे हैं, अब भाई साहब खुद भंयकर बीमारी से ग्रसित हो गए। दोनों माँ-बाप एक-दूसरे की सेवा कर रहे हैं, लेकिन जिस उम्मीद से अपने पुत्र को पढ़ाया कि बुढ़ापे में लकड़ी का सहारा देगा, लेकिन वह नहीं मिल पाता है। क्योंकि वो भी दिन में ऑफिस में व्यस्त और घर पर बच्चों व बीवी के साथ मस्त । इसलिए सही ही कहा है-ऐसा ही होता है, क्योंकि समय के बदलते परिवेश में आजकल कुछ ऐसा ही होने लगा है। फिर भी आज जरूरत है विलुप्त होती संस्कृति के रक्षार्थ चिंतनशील विचारों की जो कि आज की पीढ़ी में चेतना जागृत कर ऐसा प्राण फूंक सके, जिससे वृद्धावस्था किसी के लिए अभिशाप नहीं बन सके और एक सुखमय परिवार की परिकल्पना को साकार किया जा सके।

 

-Er. Tarachand

To read this story in English click here:

That’s how it happens

Leave a Reply