” बोध प्रसंग “

 

युनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात एक बार भ्रमण करते हुए एक शहर में पहुंचे, यहां उनकी एक वृद्ध व्यक्ति से मुलाकात | हुई। दोनों काफी घुल-मिल गये और काफी खुलकर बातें की। सुकरात ने संतोष व्यक्त करते हुए कहा- आपका विगत जीवन तो शानदार ढंग से बीता है, पर इस वृद्धावस्था में आपको कौन-२ से पापड़ बेलने पढ रहे हैं, यह तो बताइये।

वृद्ध किचित मुस्कराया और बोला- में अपना पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने पुत्रों को देकर निश्चित हूँ। ये जो कहते हैं कर लेता हूं। जो खिलाते है खा लेता हूं और अपने पौत्र-पोत्रियों के साथ हंसता खेलता रहता हूँ। में उनके निजी कार्य में बाधक नहीं बनता पर जब वे कभी परामर्श लेने आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रख कर सलाह देता हूं। ये मेरी सलाह पर कितना चलते है, यह देखना और अपना दिमाग खराब करना अपना काम नहीं है। परामर्श के बाद भी वे भूल करते हैं तो मैं चिन्तित नहीं होता। उस पर ये पुनः मेरे पास आते है तो मेरा दरवाजा सदैव उनके लिये खुला रहता है और पुनः उन्हें न्यायोचित सलाह देता हूँ। वृद्ध की बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- इस आयु में जीवन कैसे जीया जाये, यह आपने बखूबी समझ लिया है।

 

-Er. Tarachand

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“Sense of Perception”

‘बोध प्रसंग’ या बड़े घर की बेटी”

बचपन में मेरे गांव के स्कूल में एक जोधपुर शहर के अध्यापक जोकि उस समय एम. कॉम. एल. एल. बी. की शिक्षा प्राप्त कर चुके थे, अध्यापन कार्य के लिए नियुक्त हुए। उनकी धर्मपत्नी जोधपुर के ख्याति प्राप्त डॉक्टर साहब की पुत्री थी। शहर से आये हुए दम्पति को छः दशक पूर्व गांव की जिन्दगी कैसी लगी होगी, उसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके क्वार्टर में शौचालय तक नहीं था और लालटेन की रोशनी से रात गुजारनी पड़ती थी।

 

उनके तीन पुत्र हुए और उनकी शिक्षा-दीक्षा हमारे गांव में ही हुई । गुरु माता जी के जीवन की खास बात यह रही कि उन्होंने अपने शादी के बाद डॉक्टर साहब की पुत्री न समझकर गुरुदेव की पत्नी के रूप में हमेशा प्रदर्शित किया। गुरूजी की तनखाह के मुताबिक अपना घर खर्च चलाया तथा स्वयं सादगी की जिन्दगी जीने में ही आनन्द लिया। बचपन में हम देखते थे कि उन्होंने अपने बच्चों को सब काम हाथ से करवाये खुद के कपड़े धोना तथा खाने के बर्तन साफ करने की जिम्मेदारी बच्चों पर थी। उनके मार्गदर्शन में तीनों बच्चों ने कालांतर में उच्च शिक्षा प्राप्त की, जिसकी वजह से एक बेटा हायर सेकेण्डरी में प्रिंसीपल, दूसरा लड़का बैंगलोर इसरो मे वरिष्ठ वैज्ञानिक तथा तीसरा लड़का डॉक्टर वरिष्ठ विशेषज्ञ मेडीसिन के पद पर सेवारत है। गुरुमाता जी जब भी जोधपुर आती अपने पिता से दवाईया ले आती और गांव में कोई भी बीमार होता, उसको निःशुल्क दवाईया वितरित करती । 

गांव में उनका बहुत सम्मान था और सेवानिवृत्ति के बाद गांव में गुरु देव को सरपंच का पद भी सौंपा गया। उस परिवार ने गांव के बच्चों को भी उचित मार्गदर्शन दिया, ताकि वे भी स्कूल की शिक्षा के बाद शहर जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके तथा सेवा निवृत्ति के बाद भी अपने पोते पोतियों को अपने यहां रखकर उच्च शिक्षा प्रदान करायी तथा संस्कारित बनाया।

 

उनकी नौकरी शुरू करने के बाद अन्य गुरूदेव उसी गांव में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए जो कि रानी स्टेशन (गांव से 15 कि.मी. दूर) के रहने वाले थे तथा उनकी पत्नी जोधपुर से थी । दूसरी गुरूमाता जी के पिताजी तत्कालीन जोधपुर महाराजा के यहा उच्च पद पर नियुक्त थे और गुरु माताजी का भाई पांच दशक पूर्व कलकत्ता में चार्टड एकाउण्टेट था।

 

दूसरी गुरुमाता जी ने हमेशा अपने को जोधपुर के बड़े घर की पुत्री समझा और पति देव को मामूली गाव का आदमी। पति से झगड़ा करना, उन्हें हम बच्चों के सामने गाली-गलौच करना, उनके घर में इस्त्री कराये गुरुजी के कपड़ों को मिट्टी में डालना, रोज की उनकी दिनचर्या हो गयी थी। गुरूजी ने नौकरी करते समय खूब धीरज रखा और पत्नी के क्रूर व्यवहार को सहन करते रहे। वर्तमान में गुरूजी की पत्नी गांव में अलग मकान लेकर जीवन जी रही है। उनकी पुत्री का ससुराल में 2 साल रहने के बाद तलाक हो गया तथा यह भी गुरुमाता जी से अलग रह कर एकाकी जीवन व्यतीत कर रही है और सेवानिवृत्ति के बाद गुरुजी भी पक्षाघात के मरीज बन चुके है। 

 

यह प्रसंग जन महिलाओं के लिए नई दिशा देगा जो कि अपने ससुराल में रह कर पीहर का गुणगान करती रहती है और पति व ससुर को हीन दृष्टि से देखती है तथा घर में असन्तोष का वातावरण बनाकर रखती है। जांगिड समाज में भी ऐसे ही तलाक के मामले बढ़ रहे हैं।

 परिवार के वरण को शांत व सुखद बनाने के लिए निरभिमानिता एवं सहिष्णुता का जीवन मे क्या महत्व है उपरोक्त दोन घटना यह स्पष्ट करती है एक सौम्य व्यवहार रखने में प्रेरणा देती है।

 

-Er. Tarachand

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‘Another Instance’ or ‘The Daughter of a Rich Family

इस घर में डाक्टर की जरुरत नहीं

एक बार अपने एक समाज बंधु के माताजी के देहावसान के बाद, तीये की बैठक में जाने का मौका था। वहाँ बैठक के बाद उठावणे की रस्म अदा करने का समय आया तो एक पंडितजी करीब आधा घंटे शांति पाठ इस तरह बोल रहे थे. मानो जैसे उनके आँखों के सामने पड़े लेपटोप को पढ़कर बोल रहे हो। समाज के संस्थाओं से प्राप्त शोक संदेश भी बिना चश्मा लगाये आसानी से पढ़ लिये थे। शोक सभा विसर्जित हो गई, तो उत्सुकतावश में पंडितजी से परिचय करने उनके पास पहुँच गया और उनके उत्तम स्वास्थ्य के बारे में चर्चा की।

 

पंडितजी ने बताया “वे 79 वर्ष पार कर गये हैं और पढ़ने के लिये आँखों का ऑपरेशन नहीं करवाना पड़ा तथा बिना चश्में के किताबें आसानी से पढ लेता हूँ। सभी 32 दांत सही सलामत है। प्रातः 5 बजे उठकर शौचादि से निवृति के बाद 7-8 किलोमीटर दूर घूमने जाता हूँ वहाँ पहाड़ी की तलहटी में बैठकर ध्यान-योगा वगैरह प्रकृति की गोद में सम्पूर्ण करता हूँ। अपने कपड़े स्वयं धोता हूँ। छोटी-मोटी बीमारी होने पर मैं स्वयं अपनी प्राकृतिक चिकित्सा तथा देशी घरेलू उपचार करता हूँ। अपने बच्चों के इलाज भी मैं स्वयं करता हूँ। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि मैंने अपने मकान की आगे की दीवार पर बोर्ड लगा रखा है, जिस पर लिखा हुआ है इस घर में डाक्टर की जरूरत नहीं।”

 

इसी तरह दूसरा मामला बताता हूँ। मेरे एक साथी डिजायन इंजीनियर है। उन्होंने एक बार विचार किया कि जंगलों में पहले अपने ऋषि मुनि बिना पकाया खाना खाते थे तो अपन भी ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? परीक्षण के तौर पर उनके घर खाना नहीं बनाया गया और प्राकृतिक खाद्य वस्तुएँ जैसे फल, सब्जी कंदमूल रात-दिन खाते रहे और अपने परिवार के सदस्य तथा स्वयं अपना काम ऑफिस जाना आना करीब छः महीने तक चालू रखा और उनके स्वास्थ्य में कोई गिरावट महसूस नहीं की। उनका कहना है कि हम सदैव प्रकृति से जुड़े रहे तथा प्राकृतिक चिकित्सा करते रहे, तो अपना शरीर भी ऋषि मुनियों की तरह चल सकता है।

 

अब प्रकृति से जुड़ाव की बात हुई, तो मैं आपको मेरे बचपन का किस्सा बताता हूँ, हम उस समय किस तरह प्रकृति से जुड़े हुए थे। एक बार में 7-8 साल की अवस्था में नंगे पाँव एक खेत से गुजर रहा था. तो एक बड़ा लम्बा काँटा मेरे पैर में नीचे से घुस कर ऊँपर बाहर निकल गया। मैं रोता-रोता चमार के घर गया और उसने अपने नुकीले औजार से थोड़ी पैर की चमड़ी कुचली और फिर पक्कड़ से पकड़कर पूरा काँटा पैर से बाहर खींच लिया। थोड़ा खून बहने लगा तो चमार ने बारीक साफ मिट्टी उस घाव पर लगा दी और मुझे कहा थोड़ी देर बैठकर दबा कर रखो। खून बंद हो गया। फिर एक लड़के ने मेरे पैर पर मूत्र किया ताकि मिट्टी साफ हो सके और फिर उसने नीम के छाल की पत्थर पर घीसकर मलहम बनाकर -उस जगह तीन-चार दिन लगाया और घाव ठीक हो गया। उस जमाने में गाँवों में न तो एंटीसेप्टिक तथा न टिटनेस इन्जेक्शन होता था। कहने का तात्पर्य यही है, कि जितने हम प्रकृति से जुड़े रहेंगे, सादा जीवन उच्च विचार आपसी भाईचारा रखेंगे. उतनी जिंदगी आनन्दमय तथा स्वस्थ रहेगी।

 

-Er. Tarachand

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There is no need for a doctor in this house

माँ की ममता

एकसाता परिवार था। परिवार बहुत प्रेम से रहता था कि पिताजी का निधन हो गया। पीछे बच गई माँ और उसका बेटा पिता की यह दिल से कि उसका बेटा डाक्टर बने पिता के देवसान के बाद माँ पर बच्चे का सारा दाल गया था। उसे रह रहकर अपने पति की ख्वाहिश याद आती। उसने ठान लिया कि मैं पति की इच्छा पूरी करने के लिए बच्चे को डाक्टर बनाऊंगी। बेटे का भविष्य बनाने के लिए यह लोगों के घर काम करने जाती जो आमदनी होती उससे बच्चे को पढ़ाती-लिखी जो थोड़ा बहुत गहना था, उसे बचा और मकान भी बेच डाला। एक झोपड़ी में आकर रहने लग गई और जैसे जैसे आखिर उसने अपने बेटे को अक्टर बना दिया।

 

समय बीता, बेटे की शादी भी डाक्टर बहु से हुई फिर शुरू हुआ पुरानी और नई पीढ़ी का असंतुलन का सिलसिला साल को बहु का रहन-सहन रास न आया तो कभी भी जी कह दिया करती थी बेटा सिर दक लो बहु को यह टोका-टोकी पसन्द न | आई और एक दिन पति से कह दिया कि अब मैं किसी भी हालत में इस घर में नहीं रहूंगी। बेटे ने पत्नी को समझाते हुए कहा कि कुछ तो सोचो मेरी माँ ने मुझे डाक्टर बनाने में कितनी कुर्बानियां दी है, कितनी कठनाईयों से मुझे पाला-पोसा है, पर बहु नही मानी | और पत्नी के दबाव के आगे झुकते हुए माताजी को वृद्धा आश्रम पहुंचाया गया। बेटे ने माँ से कहा- यहां तुम्हारा मन लग जायेगा और मैं तुम्हे पांच सौ रूपये हर महिने भेजता रहूंगा।

 

माँ ने कहा- ठीक है बेटा, जिसमें तुम लोगों को सुख मिले पैसा ही करो। बुढ़िया वृद्धाश्रम में रहने लगी। हर महिने पाच सौ रूपये आते रहे। बेटा छः महिने में एक बार मिलने आ जाता तो कमी कभार बहुरानी लोभ लालचवश वहां चली जाती। इस तरह कोई ढाई वर्ष बीत गये।

 

एक दिन वृद्धाश्रम के संचालक का बेटे के पास फोन आया डाक्टर साहब, आपकी मी नाजुक हालत में है, आप फौरन यहां पहुंच जाइये आपकी म जाने से पहले आपसे मिलना चाहती है। बेटे ने कहा- मेरे पास कुछ मरीज है. उन्हें निपटाकर आता हूँ। उसी माँ की बेटी अमेरिका में रहती थी. सूचना पाकर ही दूसरे दिन वृद्धाश्रम पहुंच गई थी। बेटा दूसरे दिन पहुंचा और अपनी दाहिन को खदे पाया तो चौका। उसने पूछा माँ कहां है ? सबके चहरे उतरे हुए बया कर रहे थे कि माँ नहीं रही। उसने संचालक से पूछा क्या आखिरी सांस लेने से पहले माँ ने मुझे याद किया था ? संचालक ने बताया कि मरने से पहले माँ की यही अंतिम इच्छा थी कि अपने बेटे का मुंह देख ले, लेकिन बार-बार फोन करने के बावजूद तुम नहीं आये, हां तुम्हारी माँ ने जाने से पहले तुम्हारे लिये ये दो लिफाफे दिये हैं। उसने देखा कि एक लिफाफा पतला था और दूसरा मोटाउने फिके लेकर पहले पतला वाला लिफाफा खोता.

 

जिसमे लिखा था मेरे प्यारे बेटे, आखिर तुम आ गये, मुझे विश्वास था कि तुम जरूर आओगे। मुझे वृद्धाश्रम में कोई तकलीफ नही हुई और एक पैसा भी खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी। तुम तो मेरे बहुत प्यारे बेटे हो। तुमने जो पांच सौ रूपये हर महिने भेजे, वे पन्द्रह हजार रूपये दूसरे लिफाफे में रखे है। मेटा जैसे में बूढ़ी हुई- एक दिन तुम भी पूरे हो जाओगे। हो सकता है तुम्हें भी एक दिन इसी वृद्धाश्रम में रहना पड़े। मुझे नहीं पता. उस समय तुम्हारा बेटा तुम्हे पाच सौ रूपये भेज पायेगा या नहीं। उस समय पैसों की जरूरत रहेगी। ये पन्द्रह हजार रुपये में तुम्हारे लिए | उस समय के लिए छोड़ कर जा रही हूं।

 

-Er. Tarachand

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Mother’s love