जांगिड़ समाज के सरकारी अफसर

राजस्थान राज्य के भीतर ही विचार करें तो आप देखेंगे कि जांगिड़ समाज के बहुत ही कम प्रथम श्रेणी के अधिकारी हैं। इसका कारण यह है कि जो तीव्र बुद्धि के छात्र होते हैं वे वित्तीय कमी के कारण कॉलेज शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं, अतः अपने हुनर के हिसाब से अधिकतर छात्र कारखानों या फर्नीचर के धंधों में लग जाते हैं। कुछ छात्र, जिन्होंने अपने बलबूते पर कॉलेज शिक्षा प्राप्त कर अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा में सफलता प्राप्त की, वे सरकारी नौकरी प्राप्त कर सके। तो सबसे पहले में उन्हें अपनी सफलता के लिए बधाई देता हूं।

 

जब नौकरी करते हैं तो पोस्टिंग/ट्रांसफर अधिकतर राजनैतिक हस्तक्षेप से होती है। अपना समाज अभी तक राजनैतिक स्तर पर अपना दबदबा नहीं बना सका है, अतः दूसरी परिपक्व राजनैतिक जाति के अफसर अपनी इच्छानुसार पोस्टिंग / ट्रांसफर करवाते हैं, उसमें अपनी जाति के अफसर दूसरी लाइन में डाल दिये जाते हैं।

 

कुछ अफसर अपने कार्यकाल में किसी एक राजनैतिक दल का समर्थन करते हैं, उनको विपक्ष की सरकार आने पर ट्रांसफर का कष्ट झेलना पड़ता है। मेरा स्वयं राजस्थान राज्य विद्युत मंडल में 38 वर्ष के कार्यकाल में 16 बार ट्रांसफर हुआ था।

 

कुछ जांगिड अधिकारी चाहते है कि हमें उच्च पद मिला है, अतः जनता की सेवा करनी चाहिए। वे इसी दृष्टिकोण से अपने कार्यालय तथा अधीनस्थ अधिकारी कार्यालयों में अनुशासन, ईमानदारी तथा अधिकारियों/कर्मचारियों में सेवा भाव पैदा करने की कोशिश करते हैं ताकि जनता के काम बिना परेशानी से हो सके। यह व्यवहार अपने अधीनस्थ निठल्ले अधिकारियों को गवारा नहीं होता है और वे सत्ता पक्ष के नेताओं के कान भरते है। दूसरी बात जब अफसर जनता के काम तीव्र गति से निपटाने की कोशिश करते हैं तो जनता सत्ता पक्ष के नेताओं की हाजिरी देना कम देती हैं, यानि वे उनका कद कम कर देते हैं तो अपने राजनैतिक वर्चस्व के लिए मंत्री महोदय को झूठी शिकायते करते हैं तो मंत्री महोदय से उनका स्थानान्तरण करवा देते हैं, इसकी वजह से अपने समाज के अधिकारी मायूस हो जाते हैं।

 

मारवाड़ी कहावत है ‘जेडो बाजे बायरो, बैडी लेजे ओड’ यानि हवा के रुख की तरफ चलने में ही फायदा है। मतलब सरकार में जो भी सत्ता पक्ष की राजनैतिक पार्टी है उसके हितों का भी ध्यान रखना होगा, अपने को बचाते हुए। दूसरा बिन्दु अपने जाति के अधिकारी स्वयं अपने स्तर पर जनता के काम करने लगते हैं तो अधीनस्थ अधिकारी यह कह कर बच निकलते हैं कि यह काम हमने नहीं, हमारे बॉस ने दिया है। तब नेताओं का कोपभाजन अपने समाज का अधिकारी ही बनता है और ट्रांसफर उसी की होती है, नीचे वाले अफसरों की नहीं। यह मेरा तर्जुबा है और आप सेवारत अधिकारी इस दिशा में विचार करें और जो काम करना चाहते हैं वे अधीनस्थ अधिकारियों से करवाते है तो आपका काम हल्का हो जायेगा, और ऊपर से मंत्री या मुख्यमंत्री से शिकायत आयेगी तो आप जांच कर सही रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे तो वह अधीनस्थ अधिकारी बच जायेगा और आपके कार्य पर आंच नहीं आयेगी। यह सिर्फ मेरा सुझाव है, अच्छा लगे तो करें।

 

अंत में राजस्थान के बाड़मेर जिले की जांगिड पंचायत के सदस्यों, वहां के भामाशाहों को धन्यवाद देता हूं कि वे शिक्षा क्षेत्र में जांगिड छात्रावास बना कर उसमें छात्रों को रहने, खाने पीने की व्यवस्था व कोचिंग का ध्यान रख रहे हैं। उसी बदौलत जांगिड समाज के 5-6 भारतीय सेवा के अधिकारी बन कर राज्य/देश की सेवा कर रहे हैं और अपना नाम कमाते हुए जांगिड समाज को भी गौरवान्वित कर रहे हैं।

 

-Er. Tarachand

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Government officials of Jangid Society

देशभक्ति और राजनीति

आज मैं आपको दो आँखों देखी। घटना बता रहा हूं। सन् 1961 में जब मैंने कनिष्ठ अभियन्ता पद पर न्यू पावर हाऊस जोधपुर में नौकरी शुरू की, तब वहां स्टाल कम्पनी टरबाइन स्थापित की जा रही थी। वे टरबाइन स्वीडन से आयात की गई थी और उसको स्थापित करने के लिए एबर्स्टन नामक स्वीडिश को काम सौंपा गया था। | उसके साथ एक भारतीय इरेक्टर को भी साथ लगा रखा था, उसका नाम नैयर था, ताकि भविष्य में वह टरबाइन की देखभाल कर सके।

 

उस जमाने में मुझे 200 प्रति माह वेतन मिलता था और स्वीडिश इरेक्टर को 200 प्रतिदिन वह उस जमाने में उम्मेद भवन होटल में ठहरा हुआ था। शाम को कभी कभी नैयर भी उम्मेद भवन में स्वीडिश के साथ दारू पीने चला जाता था। एक दिन श्री नैयर ने शराब के नशे में स्वीडिश इरेक्टर को स्वीडन की औरतों के बारे में कुछ अशोभनीय शब्द बोल दिये। इरेक्टर ने कमरे में जाकर अटैची से लोडेड पिस्टल निकाली और नैयर के कान के पास लगा दी। नैयर पसीने-पसीने हो गया और तुरन्त स्वीडिश के पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा। स्वीडिश ने कहा, नैयर तुम मेरे भारत में पहले दोस्त हो, इसलिए शूट नहीं कर रहा हूं, लेकिन अगली बार माफी नहीं मैं अपने देश के लिए कोई | गलत बात सहन नहीं सकता ऐसी थी स्वीडिश इरेक्टर की देशभक्ति ।

 

दूसरी बात, सन् 1979-80 में मैं बाड़मेर में सहायक अभियन्ता पद पर सेवारत था। बाड़मेर में एक सेठ (दुकानदार) के दो लड़के थे। बड़ा लड़का भाजपा में और छोटा लड़का कांग्रेस पार्टी में कर्मठ कार्यकर्ता। उस समय भाजपा की सरकार थी, तब श्री लालकृष्ण अडवाणी का बाड़मेर राजनैतिक दौरा हुआ और उनको तराजू में सिक्कों से तोलने का कार्यक्रम बना। उस समय तराजू पर सेठजी का बड़ा लड़का तराजू पर मुख्य कार्यकर्ता की हैसियत से इस प्रोग्राम पर मंच पर उपस्थित था। बाद में भाजपा सरकार ढाई साल बाद गिर गई और कांग्रेस पार्टी सत्ता में वापिस आ गई। इसी तरह कांग्रेस राज में श्रीमती इन्दिरा गांधी का बाड़मेर राजनैतिक दौरे का कार्यक्रम बना, उन्हें भी बाड़मेर के कांग्रेस पार्टी की तरफ से तराजू में सिक्कों से तोलने का कार्यक्रम बना, तब सेठजी का छोटा लड़का मंच पर तराजू के पास कर्मठ नेता के तौर पर उपस्थित था।

 

एक दिन वही सेठजी बिजली की कोई समस्या लेकर मेरे आफिस आये। बातचीत में मैंने दोनों उपरोक्त मामलों का जिक्र किया और उनसे पूछा, आपका एक बेटा भाजपा में तथा दूसरा बेटा कांग्रेस में नेता। आप अपने घर पर दोनों का कैसे सामंजस्य बैठाते हो ?

 

सेठजी ने जबाव दिया, जब भाजपा पार्टी की सरकार पावर में होती है तो बड़े लड़के को दुकान के कार्य से मुक्त कर देते हैं, ताकि वह भाजपा पार्टी के कार्यक्रम में आसानी से भाग ले सके। इसी तरह जब कांग्रेस पार्टी की सरकार बनती है तो बड़ा लड़का राजनीति से थोड़ा हट कर दुकान में मेरे साथ काम करता है और छोटे लड़के को कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए दुकान कार्य से मुक्त कर देते हैं। घर पर राजनैतिक चर्चा नहीं होती है और दोनों भाई एक ही थाली में साथ खाना खाते हैं। दुकान रोज जाता हूं। जब भाजपा सत्ता में होती है तो भाजपा कार्यकर्ता, नेता मुझसे रामा-सामा करने दुकान पर आते रहते हैं। इसी तरह जब कांग्रेस पार्टी की सरकार बनती है तो कांग्रेस के कार्यकर्ता दुकान पर रामा-सामा करते रहते हैं। इस तरह भगवान की दया से घर व दुकान पर सदा लीला लहर।

 

दोनों उपरोक्त वृतान्त पढ़ कर पाठकगण बतावें कि क्या अपने ग्रुप में ऐसा राजनैतिक वातावरण नहीं बना सकते ? सेठजी के बेटों की तरह साथीगण आपस में प्रेम से, बिना राजनैतिक द्वेष से घर में शांति का वातावरण बनाये और सेठजी रूपी संस्था की बल्ले-बल्ले। फिर वाट्सएप पर ऐसा विचार क्यों न डाले जिससे अपने ग्रुप के सदस्य स्वीडिश एबर्स्टन इरेक्टर की तरह देशभक्ति के कुछ गुण सीख सके।

 

-Er. Tarachand

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Patriotism and Politics

न जाने, कब, कौन, कहाँ मिल जाये ?

एक दार्शनिक वरिष्ठ अभियन्ता ने दस वर्ष पूर्व मुझे बताया कि मैं और तुम दो लकड़ी के लठ्ठे की तरह दुनिया रूपी अथाह समुद्र में विचरण कर रहे है, जैसे वे लट्ठे समुद्र में लहरों के बीच हिचकोले खाते हुए मिलते है और मिलकर बिछुड़ने के बाद वापिस कब मिलेंगे, किसी को पता नहीं।

 

इस सन्दर्भ में आपको मैं अपनी जिन्दगी में घटित एक घटना को प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं सन् 1970 में विद्युत मंडल जयपुर में कार्यरत था। एक दिन मैं अपने कनिष्ठ अभियन्ता के साथ सपरिवार जीप से फुलेरा पंचायत समिति के विद्युतीकरण की योजना बनाने के लिये गये पहले फुलेरा, सांभर क्षेत्र देखते हुए जोबनेर पहुँचे, तो करीब शाम हो गई थी। मेरे साथ कनिष्ठ अभियन्ता ने अपने रिश्तेदार माथुर साहब, जो कि उस समय जोबनेर कृषि महाविद्यालय में प्राध्यापक थे, मिलने की इच्छा जाहिर की और हम सब उनके निवास पर पहुँचे। चाय नाश्ते के बाद रवाना हुए तो जीप के दोनों टायर पंचर हो गये। फिर दुबारा माथुर साहब के घर दूसरे वाहन से पहुँचे और खाना खाने के बाद रात्रि को उनके निवास पर विश्राम किया। समय के साथ यह घटना विस्मृत हो गई।

 

अभी पाँच दिन पूर्व ही जोधपुर में मेरे निवास स्थान के पास की कॉलोनी में जोशीजी जो कि बीकानेर कृषि विश्व विद्यालय में डायरेक्टर पद पर थे, के देहावसान के बाद तीसरे का उठावणा यानि शोक सभा थी। मैं भी उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करने गया। वहाँ पर जब मैं बैठा तो मेरे पास में बैठे व्यक्ति से मैनें पूछा, आप जोशी जी को कैसे जानते हैं ? उन्होंने बताया मैं व जोशीजी बीकानेर कृषि विश्व विद्यालय में साथ-साथ अध्यापन कार्य करते थे। तब मैनें उनकी तरफ गौर से देखा तो महसूस हुआ कि यह सज्जन पहले कभी मिले हुए है ? मैनें झिझकते हुए उनसे दुबारा पूछा- आप सन् 1970 में जोबनेर कॉलेज में पढ़ाने वाले माथुर साहब ही है क्या ? उन्होंने कहा- हाँ और मेरे तत्कालिन कनिष्ठ अभियन्ता का नाम लेने से वस्तुस्थिति स्पष्ट हो गई कि वे वही माथुर साहब है जिनसे सन् 1970 से बाद 2015 में यानि 45 वर्ष बाद मिलने का दुबारा मौका मिला। है ने अचरज की बात ? इसलिये सही कहा- न जाने इस संसार सागर में कौन, कब, कहाँ मिल जाये ?

 

-Er. Tarachand

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Who, when, where, how, someone may meet you ?

नौकरी से साहित्यकार (बोध प्रसंग)

अगर मैं आपसे एक प्रश्न पूछूं कि क्या एक घर पर काम करने वाली नौकरानी जो झाड़ू पोछा तथा वर्तन साफ करने की काम करती है, कभी प्रतिष्ठित साहित्कार बन सकती है? आपका जवाब होगा- नहीं लेकिन गुडगाव(हरि) में रहने वाली 33 वर्षीय देवी लदार अपनी लगन, मेहनत तथा दृढ निश्चय से बड़ी से बढ़ी मुसीबतो को झेलते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंच सकी है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में जन्मी देवी हालदार को माँ बचपन में ही घर छोड़ कर चली गई थी। पिता ने दो और शादिया की और दिमाता के कहने पर साढ़े बारह साल की उम्र में ही इनकी उम्र से दुगनी उम्र के अनपढ़ युवक से शादी कर दी।

 

देवी हालदार को पढ़ने का बहुत शौक था, लेकिन वह सातवीं कक्षा तक पढ़ पाई शादी होते ही  13 वर्ष की उम्र में एक बच्चे की माँ बन गई। समय आगे बढ़ा और तीसरा बच्चा होते ही बिना पति को बताये अपना परिवार नियोजन करवा दिया। इस तरह

 

खेलने-कूदने की उम्र में ही हालदार को अपने बच्चे पालने पड़े और अपनी इच्छा से किसी पड़ोनसन से इसके बोलने जैसी मामूली बात पर पति के लात घूंसे और गालिया सुननी पड़ी।

 

एक बार यह अपने बचपन के दोस्त के घर पूजा में गई थी, पति ने यहां आकर उसके बाल खींचकर गाली-गलीच शुरु कर दी। इस अपमान से देवी इतनी आहत हुई कि फिर अपने घर वापिस नहीं लौटी। वहीं से सीधे अपने मायके चली गई और अपने बच्चों को भी यही बुलवा लिया। अपने पिता से बेबी हालदार ने साफ कह दिया कि वहां अपने पैरों पर खुद खड़ी होगी और बच्चों को पढ़ाएगी। पिता ने जब वापिस जाने के लिए जोर दिया तो वे अपने तीनों बच्चों को लेकर अनजाने रास्ते पर निकल पड़ी। फरीदाबाद में अपनी भाभियों के मुह बनाने पर देवी हालदार ने बच्चों के साथ एक घर में नौकरानी का काम किया। कुछ दिनों बाद उन्हें एक दूसरे घर में काम मिल गया। उस घर में काम काफी कम था. इस घर मे ढेर सारी किताबों को निकाल कर वह उलट-पलट रही थी, तो मालिक ने उसे देख लिया। किताबों में उसकी रूचि जानकर मालिक ने किताबें ले जाने की अनुमति दे दी तथा एक पेज रोज लिखने को कहा। वह अपने अनुभव कागज पर मालिक का काम समझ कर लिखने लगी।

 

शुरू में भाषा की गलतियां गड़बड़ वाक्य होते थे, लेकिन धीरे-धीरे उसका हाथ खुलता गया, जब एक भाग लिख दिया तो मालिक ने उसे प्रकाशन के लिए साक्षात्कार नाम पत्रिका में भेज दिया और छप गया और पाठकों ने खूब पसन्द किया अपना नाम पत्रिका में देख कर हालदार की हिम्मत बढ़ी। यह बचपन से लेकर अब तक के अनुभव एक लेखानी तटस्थता पूर्वक लिखने लगी। वे अनुभव “आलो आधार (प्रकाश और अंधकार) बंगाल में लिखी मुक्तक पाठकों के सामने है। इस पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी. हिन्दी, मराठी में हुआ और वह लेखिका अब सर्वाधिक पुस्तकों की बिक्री की श्रेणी में आ खड़ी हुई है। उनकी छिपी प्रतिभा को पहचानने वाले मालिक विख्यात प्रेमचन्द मुंशी के नाती प्रबोध कुमार है।

 

देबी हालदार नौकरी के साथ बच्चों को भी स्कूलों में भेजकर पढ़ा रही है तथा अपनी कमाई का पैसा खुद पर खर्च न कर. बच्ची की पढ़ाई पर खर्च कर रही है। मकान मालिक ने ऊपरी मंजिल पर उसे परिवार सहित रहने को दिया है। बेबी हालदार को भिन्न साहित्यिक संस्थाये संगोष्ठियों में बुलाती रहती है और उसे पुस्तक विमोचन करवाने पर सम्मानित करती है। अनेक पत्रिकाएं उनके लेख प्रकाशित करती रहती है। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उनका साक्षात्कार दूरदर्शन पर लिया जाता है लेकिन इतना सम्मान पाकर भी बेबी हालदार ने अपने मालिक व संरक्षक के घर काम करना नहीं छोड़ा है। धन्यवाद की पात्रा है बेबी हालदार

 

-Er. Tarachand

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From a Worker to a Writer (Bodh Prasang)